Saturday, December 23, 2017

तिहवार के खुशी

नमस्कार,

हालचाल ठीक बा. बड़ा दिन आवता।  इस्कूलन में छुट्टी हो गईल. बड़ा दिन की बाद सन २०१८ आई. बड़का दिन अंग्रेजी स्कूलन में धूम धाम मनावल जाला. जबसे टीवी नामके टीबी देश में आ गईल तबसे बड़का दिन आ नवका साल सभे मनावे लागल। डायरी, कलेण्डर आ बहुत कुल उपहार बटाईल शुरू हो गईल बा.

केक, पेस्ट्री, चॉकलेट की दिन में गुड़, महिया, राब, पट्टी, लाई के के पूछी. १४ जनवरी के खिचड़ी नाम के तिहवार पड़ेला ओहि दिन के व्यंजन खिचड़ी, लाई, दही, अचार,घी, पापड़ ह. गवई ज़माना में लाई खिचड़ी से बहुत पहिले ही बने लगत रहल ह. बड़की बड़की लाई बान्हल भी कला रहल आ ओके खाइल भी. लेकिन जब हम दुमहला तिमहला बरगर लोगन के खात देखलीं त लाई के आकार की बारे में सोचल बंद क दिहनी।

गाँव से जब शहर/ कस्बा में रहे मोका मिलल त रेवड़ी आ गजक से परिचय भईल. तिल के लाई खाये के आ छूएके (दान) खिचड़ी के जरूरी काम रहे. देहात में लोग माघ में काला तिल ना कीनेला ऐसे माघ की पहिले ही तिल कीन लिहल जात रहल. धीरे धीरे लाई गायब होखे लागल आ रेवड़ी गजक आ भाँति भांति  के डिब्बा बंद लाई गजक मिले लागल।

 खिचड़ी के डिब्बा बंद  नवका सामान में विविघता त बा बाकी बुझाला की सोंधाई आ स्वाद दुनू गड़बड़ा गईल बा. चाउर, चिउरा, चना, मकई, साँवा, कोदो, उजरका तिल, करिका तिल आदि के लाई सब केक पेस्ट्री के कान काटे वाला लागत बा. लाई की पाग में अदरक आ तिल परि  जाई आ पाग ठीक उतरि जाई त सवाद बनि जाई।  हर घर के लाई सवाद भी अलग अलग रहत रहल.

जाड़ा से डर छोड़ी के लोग माघ भरि स्नान दान करेला। त मन भर केक खाई सभे, नवका साल मनाई सभे, लाई बनाई, गजक खाई, घीव खिच्चड़ खाई सभे, उत्सव मनाई खुश रहीं , ख़ुशी बाटीं ,खिचड़ी बाटीं, लाई बाँटीं आ पार लागे त माघ भर नहा के दान देई।

बड़का दिन, नवका साल आ खिचड़ी की सन्ति शुभकामना.

पढ़ले खातिर धन्यवाद.

फेरू भेंट होई।

Thursday, September 8, 2016

फ्लेक्सी किराया बनाम पाकेटमारी उर्फ़ कालाबाजारी

नमस्कार!
हालचाल ठीक है. भादों का महीना चल रहा है. वर्षा और बाढ़ के साथ कहीं कहीं सूखा भी पड़ा हुआ है. कल रेल विभाग ने कुछ फ्लेक्सी किराया का फार्मूला बनाया है. रेल विभाग कहता है कि उसे घाटा उठाना पड़ रहा है. पिछले तमाम वर्षों से रेल किराया में बजट के समय वृध्दि नहीं की जाती है और बाद में विविध तरीकों से पैसा उगाहा जाता है.

जेब कतरा, लुटेरा और भिखारी तीनों धन लेते हैं किन्तु तरीका भिन्न है .अर्थ व्यवस्था उदार हो रही है. अर्थ व्यवस्था को उदार बनाने के लिए सरकार को कड़े फैसले लेने पड़ते हैं. इसलिए लूटने और ठगने और कालाबाजारी करने के उदारीकृत नाम खोजे गए हैं. इन्ही में से एक है फ्लेक्सी रेल  टिकट.

प्रभु जी यदि रेल पैसा कमाना चाहती है तो प्रत्येक रूट पर नयी ट्रेन चलाये. इस ट्रेन का किराया मनमानी रखिये किन्तु सबके लिए एक रखिये. अधिकतम दस दिन पहले टिकट दीजिये. रेल किराया प्रति किमी की दर से लीजिये और फ्लेक्सी किराया काऔसत निकाल कर सबको एक समान दर पर टिकट दीजिये. ट्रेन के आधे डिब्बे स्लीपर और आधे चेयर कार वाले रखिये. परिचालन व्यय से कम का तो सवाल ही नहीं कम से कम पचास प्रतिशत लाभ पर चलाइये. जैसे जैसे मांग बढ़े वैसे वैसे ट्रेनों की संख्या बढ़ाइए. अगले बजट में जनता  को साफ़ साफ़ खर्चा बताकर यात्री किराया किमी की दर पर कीजिये.

भारत की जनता भारतीय रेल को स्वच्छ , सुन्दर और आधुनिक  देखना चाहती है इसलिए कुछ दिन के लिए बुलेट  ट्रेन पर  पैसा खपाने का काम रोककर एक सौ बीस  करोड़ जनता के लिए काम कीजिये . पांच करोड़  मलाई दार जनता के लिए बाकी  जनता को पीसना बंद कीजिये. संगठित पाकेटमारी बंद होनी चाहिए. रेल और मोबाइल दोनों ही इस काम में जुटे हैं.

नमस्कार
फिर भेंट होगी.

Tuesday, April 12, 2016

स्वर्ण-उत्पाद पर कर

नमस्कार!
हालचाल ठीक है. कई दिनों  से पछुआ तेजी पर है. यूपी आग से त्रस्त है. सूखा भी है. कुछ प्रदेशों में सूखा से पानी का भयंकर संकट है. कई प्रदेशों में चुनाव हो रहे हैं . चुनावी जुमलेबाजियाँ भी चल रही हैं. भारत राज-दल संकट से गुजर रहा है. पूरी राजनीति को कुछ परिवार (संघ-परिवार) को शामिल करते हुए चला रहे हैं. वाम-दल सठिया गए हैं. उन्हें भी विधायिका की कुर्सी का चस्का लग गया है. युवा चापलूसी और चमचागीरी में लगे हैं. किसी भी दल में वास्तविक लोकतंत्र नहीं है. दलों की कार्यकारिणी में सठिया गए लोगों की कुटिल नीति चल रही है. मोदी ने साहस किया और सफल हुए. अन्य दलों में युवा अपना रास्ता बना नहीं पा रहे हैं. इसका सबसे बड़ा कारण राजनीति के लाभ हैं.

ऐसे राजनैतिक परिवेश में स्वर्णकार उत्पाद-कर/एक्साइज ड्यूटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं और भाजपा  को छोड़कर सभी राजदल विरोध में हैं. भारत में योजनाओं के मूल्यांकन पर समीक्षा नहीं होती तात्कालिक मत-लाभ के आधार पर अपना तर्क दिया जाता है. असली भुक्तभोगी उपभोक्ता मौन तमाशा देखता है क्योंकि वह अपने नेता/राजा पर आँख मूंदकर विश्वास करता है.

कुछ वर्षों पहले कृषि  पर आयकर लगाने की बात उठी थी संसद में खूब विरोध हुआ, भारत के सामान्य किसान भी हाहाकार करने लगे. तब मेरी समझ में जो बात आई थी उसकी पुष्टि अभी कुछ दिनों पूर्व खेती के नाम पर आयकर की चोरी और कालाधन के सृजन के खुलासे से पुष्ट हुई है. भारत में बहुत सारे खुले रहस्य हैं.

लगभग पंद्रह वर्ष पहले आयकर का रिटर्न भरने के लिए मित्र गण एक अधिवक्ता मित्र के पास बैठे थे. कर पर चर्चा करते हुए और हम लोगों के  पेटकटाऊ आयकर पर आह भरते हुए उन्होंने कई ठेलेवालों का नाम लेकर बताया की उनकी आमदनी हमलोगों से अधिक है. ऐसी दशा में मुझे उत्पाद कर लगने से कोई आपत्ति नहीं है. छोटे से दुकानदार से लेकर बड़े उद्योग सभी का पंजीकरण होना चाहिए. सभी उत्पाद गुणवत्तापूर्ण होने चाहिए. हरेक बिक्री पर पक्की रसीद मिलनी चाहिए.

जिस संस्थान में दस से अधिक कर्मचारी हों तो पीयफ नियम लागू होगा. नौ होंगे तो भाड़ में जाएँ. ऐसी स्थिति में हर संस्थान के कर्मचारी को पी यफ का लाभ मिलना चाहिए. प्रत्येक का आनलाइन पंजीकरण होना चाहिए. उत्पादकर, बिक्रीकर/वैट/जीयसटी का पंजीकरण भी आनलाइन होना चाहिए. सरकार कर प्राप्त करती है इसलिए कर के रख रखाव और रसीद की छपाई का दाम निर्धारित कर में से वापस मिलना चाहिए. जो व्यक्ति या संस्थान जितना कर दे उसके अनुपात में सामूहिक जीवन बीमा और सामग्री बीमा होना चाहिये जो व्यक्ति या संस्थान को मिलना चाहिए.

लोग कहते हैं कि इन्स्पेक्टर राज का समापन होना चाहिए. नाम बदल दीजिये कर सहायक नाम दीजिये. अगर राजदल चुनाव चन्दा के नाम पर वसूली बंद कर दें, मंत्रियों  और अधिकारियों को भेंट देना बंद हो जाय तो इस्पेक्टर  राजा से सहायक हो जायेंगे.

कर से किसी दस्तकार पर संकट नहीं आने वाल है. यदि कर उपयक्त हो अनुचित नहो. कर कराधान के बहाने हप्ता वसूली न हो. आखिर सभी करों का बोझ तो अंतिम क्रेता ही भुगतता है.

धन्यवाद! फिर भेंट होगी .
नमस्कार.

Thursday, July 30, 2015

गरमागरम-१

नमस्कार!

हालचाल ठीक ही है. कई दिन से तेज धूप हो रही है. देश में राजनीति गर्मी पर है. पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम साहब नहीं रहे. भगवान उनकी जैसे मृत्यु सबको दें. कर्मयोगी को लोगों ने राजनीति में लाया. उनका व्यक्तित्व और निखरा. "जस की तस धर दीनी चदरिया'' जीवन में ऐसा बनना कठिन है. पूर्व राष्ट्रपति के मृत्यु पर एक राजनयिक परिपाटी / प्रोटोकोल होता है उसका पालन हुआ. उनकी सक्रियता ने उनको जनता से जोड़े रखा. आगे उनके जैसे या उनसे भी अच्छे राष्ट्राध्यक्ष मिलें तो भारत का भविष्य शुभ रहेगा.

आज का दिन कुछ गड़बड़ है. आज ही कलाम साहब को उनके पैत्रिक निवास रामेश्वरम में दफनाया गया और आज ही सबेरे एक ऐतिहासिक फांसी भी दी गयी याकूब मेनन की फांसी.

फेसबुक पूरे समाज का दर्पण है. बहुत सारे लोग एकदम नंगई पर उतारू रहते हैं. दुनिया का हर मानव अपने को सर्वोच्च मानता है. इसलिए वह प्रयास भी करता है. विडम्बना यह है कि  कोई सफल नहीं हो पाता . भगवान भी नहीं. पता नहीं विश्व में कितने भगवान हैं. मानव की दूसरी मजबूरी यह है कि वह अकेले नहीं रह सकता . समाज में आने के बाद समाज में जीने मरने के अपने नियम भी हैं. हम समाज के नियम और अपने नियम से संघर्ष करते रहते हैं. इस संघर्ष के चलते हमने गुणवता पूर्वक जीने के कुछ मानक भी बना लिए हैं. हमारे स्वार्थ इन मानकों से टकराते रहते हैं . हम इन्हें तोड़ते रहते हैं किन्तु साथ में यह भी चाहते हैं की सभी हमारे हर काम को पसंद भी करें.

याकूब ने बम लगाने की योजना क्यों बनाई? उसका कोई खास संबंधी तो दंगे में नहीं मरा था. जिस व्यक्ति का नाम आ रहा है उसका तो वसूली और रंगदारी का धंधा है. इस काम के बहाने एक समुदाय के लोगों का साथ भी मिल गया और धंधा आगे चमकाने की गारंटी भी मिल गयी.

विभिन्न देशों के कर्ता धर्ता जब मिलते हैं तो आतंकवाद पर घडियाली आंसू बहाते हैं , तथा हर क्षण विश्व में धमाके होते रहें इसका प्रबंध/पोषण करते रहते हैं. मानवाधिकार और विश्वबंधुत्व के मुखौटों के पीछे हमारी दूसरों को समाप्त कर देने की इच्छा कुलबुलाती रहती है. जब भी अवसर मिलता है बाहर निकल जाती है.

एक सामान्य नागरिक देश के हर खम्भे पर विश्वास करने को मजबूर है. इसके अतिरिक्त वह कुछ नहीं कर सकता है. यदि थोड़ा भी विचलित हुआ तो ये खम्भे ही खा जायेंगे. जब उसे इन खम्भों का भय नहीं रहता या कोई खम्भा साथ देता हुआ लगता है तो वह खुश हो जाता है. बाकी ट्रेन में चौपाल में हर रोज भुक्तभोगी और लाभभोगी दोनों या तो रोते या डींग हांकते मिल ही जाते हैं.

न्याय गणित के सूत्र जैसा वस्तुनिष्ठ नहीं है. जब न्यायालय में दो न्यायाधीशों की बेंच बनती है तो मुझे कुछ अटपटा लगता है. बेंच तो एक, तीन, पांच जैसे  विसम संख्या की ही होना चाहिए. अथवा सम संख्या होने और मतभेद होने पर तत्काल एक दूसरी बेंच बननी चाहिए. न्याय तो सर्वमत से ही होना चाहिए. यदि सर्वमत नहीं है तो कानून में संशोधन होना चाहिए. किसी भी निर्णय को नजीर नहीं बनाया जाना चाहिए. नजीर बनाने के लिए कम से कम पांच जजों की बेंच का सर्वमत निर्णय होना चाहिए जो स्पष्ट रूप से उल्लेख कर सके. अभी तक न्यायालय अपने निर्णयों पर स्वत: शोध नही कराता है. विधि मंत्रालय में न्याय के विकास के लिए निरंतर शोध होना चाहिए.

न्यायालय और तारीख में बहुत निकट का सम्बन्ध है. भारत के तमाम विधिवेत्ता ऐसी प्रक्रिया का विकास नहीं कर सकें है जिससे पूरा न्याय का कार्य एक निर्धारित सीमा में पूरा हो जाय.

भारत के जितने भी लोग न्याय के क्षेत्र में एक्टिविस्ट के रूप में काम कर रहे हैं तत्काल न्यायाधीशों की नियुक्ति जनसंख्या के अनुपात में कराने के लिए जनचेतना के लिए सक्रिय हो जाय. सभी को न्याय के लिए भौतिक दूरी से भी मुक्ति मिलनी चाहिए. न्याय जनता के लिए है तो उसे जनता के पास ही जाना चाहिए.

सभी को न्याय मिले .
नमस्कार.


Sunday, July 26, 2015

तीस्ता सीतलवाड़

तीस्ता सीतलवाड़ 

नमस्कार! 

हालचाल  ठीक  है. इस क्षेत्र में सूखा अधिक और वर्षा कम है. तिलहन इस समय कम बोया जाता है . तिल और अरहर दोनों को नीलगाय पसंद करते हैं. ये जंगली जीव अबध्य हैं. अत: मोदी जी के मन की बात अच्छी  कैसे लगाती. मोदी जी की बात तीस्ता को भी अच्छी नहीं लगती है. अत: उनकी जांच सीबीआई कर रही है. लोग कहते हैं  कि इसी सीबीआइ की जांच के लिए धरना प्रदर्शन और कोर्ट कचहरी सब होता है तो तीस्ता की जांच से लोग क्यों परेशान हैं?

आज के जनसत्ता नामक अखबार में "अपूर्वानंद " का एक लेख पढ़ा तो तीस्ता के कार्य का महत्व प्रकट हुआ. फिर २४ जुलाई के इन्डियन एक्सप्रेस के लखनऊ संसकरण में "जूलियो रिबेरियो" का लेख "साइलेंसिंग तीस्ता"  पढ़ा. ( देवरिया में यह अखबार दो दिन बाद आता है ) 

अपनी स्वतंत्रता और निर्भयता पर हरदम प्रश्न उठता रहता है. भारत में कितना लोकतंत्र है यह भी दिखाई देता रहता है. तमाम ऐसे लोग जो सत्ता से टकराते हैं उनका हाल भी दिखाई देता रहता है. भारत के  राजदल  जब लोकतंत्र की हत्या रोज ही करते हैं. फिर भी भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र ( सबसे अच्छा नहीं ) कहते रहते है. ऎसी स्थिति में तीस्ता की जांच और जेल दोनों ही अवश्यम्भावी हैं. चाटुकार यनजीओ जय हो में लग गए हैं. 

भारत में प्रत्येक प्रदेश में पुलिस के कार्य में राजदल  पूरा पूरा हस्तक्षेप करते हैं. यह भी कहते रहते हैं कि कानून अपना काम करेगा. पुलिस, प्रशासन व् सत्ताधारी राजदल के सम्बन्ध जनता खूब जानती है. किन्तु एक क्षीण आशा सीबीआइ से बन जाती है. अब तक के अधिकाधिक प्रकरणों में संदेह ही बढ़ा है. 

भारत में एक अंतर-राज्यीय पुलिस व खुफिया पुलिस  की आवश्यकता है, जिसका गठन और परिचालन राज्यों के मुख्यासचिवों के एक पैनल के द्वारा किया जाना चाहिए.एक समय में पांच राज्यों के लाटरी से चुने गए मुख्यासचिवों को रखा जाना चाहिए. 

देश के सेवानिवृत्त लोकसेवक, पुलिससेवक, और न्यायसेवक मिलकर तीस्ता और तीस्ता जैसे लोगों की न्याय की लाड़ाई में सम्मिलित हो जाय तो तीस्ता और एनी जागरूक नागरिकों को न्याय मिल सकेगा.

नमस्कार. 

Sunday, April 5, 2015

लोकतंत्रः आकाश कुसुम

लोकतंत्रः आकाश कुसुम
नमस्कार!
हालचाल ठीक है. जबसे आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्य कारिणी की बैठक हुई तबसे भारत के लोकतांत्रिक संस्थाओं के कार्यकलाप सामने आते चले जा रहे हैं और मन में यह बात बैठती जा रही है कि भारतीय जनमानस में लोकतंत्र व्यवहार से बहुत दूर है. हम लोकतंत्र के मूल्यों को आत्मसात ही नहीं कर पाये हैं.

छोटी या बड़ी कोई भी लोकतांत्रिक संस्था प्रारम्भ से ही व्यक्तिवाद से ग्रस्त हो जाती है और हम अभिभूत हो चरणवन्दना में लग जाते हैं और तब तक लगे रहते हैं जबतक व्यक्तिगत हानि नहीं हो जाती है. छोटी संस्थाओं में सर्वमत से प्रस्ताव पारित होते रहते हैं क्योंकि एक व्यक्ति को छोड़कर अन्य को उससे प्रायः कोई मतलब ही नहीं होता है.

हमारी सबसे बड़ी संस्था में सांसद कितनी बार अपने विवेक के आधार पर अपना मत देता है. हमारे जन प्रतिनिधि को सभी बिलों के बारे में बोलने का अवसर भी नहीं मिलता है. सामान्यतः वह राजदल के लिये एक मत बनकर जाता है. निर्णय तो राजदल के सुप्रीमों तय किये रहते हैं.

प्रत्येक राजदल कुछ विशिष्ट सदस्यों को आजीवन अभिजात्य बना देता है. कुछ लोग नया दल बना लेते हैं आजीवन उसको चलाते हैं उसके बाद उनकी संततियां उसपर अधिकार प्राप्त कर ले ती हैं. जहां ऐसा नहीं होता वहां भी राजदल के निर्णय गुप्त मतदान द्वारा नहीं होते.

आम आदमी पार्टी के गठन के साथ यह विश्वास बन गया कि यह राजदल लोकतंत्र के हर कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास करेगा किन्तु शीघ्र ही यह अरविन्द और दिल्ली के विधायकों द्वारा स्थापित कसौटी की ओर चलने लगा. आज अरविन्द केजरीवाल यह मान रहे हैं कि मात्र उन्हीं के कारण यह दल बन गया. अब उनको यह नहीं याद आ रहा है कि पता नहीं कितनों ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया.

समता, वन्धुता और वस्तुनिष्ठता के बिना लोकतंत्र नहीं हो सकता. जबतक ऐसा नहीं होता तबतक और चाहे जो कुछ हो लोकतंत्र नहीं हो सकता.

१४ अप्रैल को कुछ लोग लोकतंत्र के बुझे हुये दीप को पुनः जलाने जा रहे हैं. उन्हें सफलता मिले. उसमें आनंद कुमार और योगेन्द्र भी होंगे. उनसे निवेदन है कि समाजमिति विधि से कार्यसमिति का चयन करें. एक प्रयोग इस विधि का भी होना चाहिये.

नमस्कार.

Saturday, November 15, 2014

शहर से शिक्षा

शहर से शिक्षा

नमस्कार!

हालचाल ठीक है. जिसे गुलाबी जाड़ा कहते हैं अब बीत गया. अखिल भारतीय शिक्षा संघर्ष यात्रा -२०१४ पथ पर है. बाल दिवस बीत गया. फोकस मे नेहरू और मोदी आ गये हैं. आज  भारत मे लोकतंत्र को सशक्त बनाने, सभी भारतीयों के जीवन सतर को जीने लायक बनाने के लिये आवश्यकताओं को क्रम से रखने में सबसे पहले तो बालक ही आयेंगे. उन्हें स्वस्थ और शिक्षित बनाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है. लोकतंत्र में सरकार जनता के धन से व्यवस्था करने का कार्य करती है किन्तु सरकार की प्राथमिकता में राजदल को सत्ता में बनाये रखना पहली प्राथमिकता हो जाती है इसके लिये जनता के धन को  पानी जैसे बहा दिया जाता है. सत्ता सुख सदा बना रहे इसके लिये आगे के लिये आय के स्रोत बनाने के लिये तमाम तरह के कार्य किये जाते हैं. जनता एक सीमा तक इसे उचित मानने के लिये विवश भी है और विवशता में कुछ खुर्चन पाकर संतुष्ट हो जाती है.

नवम्बर २०१४ की "कादम्बिनी " सामने है...क्योंकि शहर एक सपना है यही प्रतिपाद्य है इस अंक का. जुलाई अगस्त में कई शहरों को देखने का अवसर मिला. गांव में जन्म हुआ. तब गांव में प्रसव कराने के लिये, हल चलाने वाले की पत्नी या मां आती थी. हल्दी, बीरो, दूध और मालिश के सहारे जच्चा बच्चा रहते थे. स्कूल जाने का समय आया तो गांव की जिला परिषद द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालय मिला. मिट्टी की दीवार का खपरैल विद्यालय लगभग गिर चुका था. किन्तु हर कक्षा के लिये एक अध्यापक थे. प्रधानाध्यापक पंडित राज किशोर तिवारी ठीक समय पर विद्यालय पहुंच जाते थे. पेंड़ों के नीचे कक्षायें चल जाती थीं एक पक्का कुआं  भी था. पीटी भी होती थी और शनिवार को बालसभा भी. इस लिहाज से मैं एक गंवार आदमी हूं. तमाम विद्वानों के अनुसार मुझे उसी गांव में बने रहना चाहिये था. मेरे पिताजी जिन्हें मैं बाबूजी कहता था नौकरी तो बाहर करते थे किन्तु गांव में ही रहना चाहते थे. यहां तक कि जब देवरिया में नई कालोनी बस रही थी तो मित्रों द्वारा जमीन लेने के सलाह को ठुकारा दिये और उन लोगों के जमीन लेने के निर्णय की आलोचना भी करते थे. किन्तु १९८१ में उन्होंने देवरिया नगरपालिका क्षेत्र में जमीन लेकर आवास बनवा लिया. इस प्रकार मैं नगरवासी बन गया.

देवरिया नगर भी कई गांवों से मिलकर बना है और लगातार विस्तृत होता जा रहा है. हर कस्बा, नगर और महानगर लगातार बढ़ रहा है. अनियोजित ढंग से बढ़ रहा है. नगर का बढ़ना विकास की परिभाषा में भी आता है. गांव में रहकर कौन गंवार बना रहना चाहेगा. यह अवश्य है कि अनियोजित विस्तार के कारण महानगर भी नरक बन चुके हैं इसके लिये सारा दोष दूसरे प्रदेशों से आये कामगारों को दिया जाता है.

मैं अपनी बात स्पष्ट करने के लिये गाजियाबाद के वसुन्धरा कालोनी को लेता हूं जहां अगस्त में एक सप्ताह रहने का अवसर मिला. सड़क, फुटपाथ, और नाली सार्वजनिक ही बन सकती है और उसे साफ करने का उपाय भी सार्वजनिक ही हो सकता है. इस कार्य को संपन्न करने के लिये नगरपालिका ही जिम्मेदार है और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिये. वसुन्धरा में मुझे यह देखने को नहीं मिला. जो लोग भी रहते हैं उनकी तमाम आवश्यकतायें होती है. उन आवश्यकताओं को पूरा करने वाले लोग कहां रहेंगे इसके बारे में योजनाकारों ने नहीं सोचा. घरेलू सहायिका, परिधानशिल्पी, परिधानसंरक्षी, आटोचालक, सुरक्षाकर्मी, वाहनचालक, जलसंसाधन संरक्षक, विद्युत संरक्षक, आदि आदि के लिये भी वास स्थान बनना चाहिये था , नहीं बना तो आधारभूत काम करनेवाले झुग्गियों में रहते हैं. वे उतना अपराध नहीं करते जितना ह्वाइट कालर क्राइम होता है. वे नाली में नहा लेते हैं, कूड़े में रह लेते हैं ताकि कालोनी वाले सुख से जी सकें.

स्मार्ट सिटी चर्चा में है. धनी लोग उसमें रहेंगे सब कुछ स्मार्ट होगा लेकिन रहेगा तो आदमी ही. उसे सेवक चाहिये, अत्यधिक उत्पादित कचरा को किनारे लगाने वाले लोग चाहिये.

शहर में लोग व्यस्त हैं क्योंकि कार्यस्थल पर पहुंचने के लिये चार घंटे से अधिक समय चाहिये. हर कार्यालय, और उत्पाद्शाला तथा कार्यशाला आदि में कार्य करनेवाले यदि अपने कार्यस्थल के बिल्कुल समीप रहें तो आवागमन और जाम की समस्या से मुक्ति मिल सकती है. राजदल के लोग चुनाव के समय हर आवश्यक नियम को अपने सत्तासुख के लिये समाप्त करने का काम छोड़ दें तो हर नगर और गांव तमाम समस्याओं से मुक्त हो जायेगा. किसी कानून को बदलने के लिये लोगों को जीवन का बलिदान करना पड़ता है, तब भी नहीं बदलता किन्तु वोटबैंक के लिये सब खतम.

इन कालोनियों मे शिक्षा और शिक्षालय के लिये कोई सुविचारित और नियोजित व्यवस्था नहीं है. पक्के मकानों में रहनेवाले प्रतियोगिता में अपनी जेबे ढीली करते रहते हैं. प्राथमिक विद्यालयों की सूचना पुस्तिकायें  पांच सौ , हजार की  मिलती हैं किन्तु उनसे यह पता नहीं चलता कि वहां के शिक्षक वास्तव में प्रशिक्षित हैं या नहीं. पचास हजार से लाख रूपये वार्षिक खर्च कर माता पिता रोज होमवर्क कराने को बाध्य हो जाते हैं या ट्यूशन का सहारा ले लेते हैं. बच्चे वाहनों से विद्यालय जाते हैं और आते हैं. पूरब वाले पश्चिम और पश्चिम वाले पूरब जाते हैं.

यदि सभी के लिये एक समान पाठ्यक्रम, शिक्षालय ,शिक्षक की व्यवस्था हो तो नौनिहाल बस्ते के बोझ से दबने से और अभिभावक शुल्क के बोझ से दबने से बच जायेंगे. सरकार शिक्षा उपकर वसूल लेती है किन्तु शिक्षा क्षेत्र की सम्पूर्ण जिम्मेदारी लेने से बच जाती है. भारत के नब्बे प्रतिशत लोग इस शिक्षा को असहायता में झेल रहे हैं क्योंकि वे जिन्हें अपना प्रतिनिधि समझते हैं वे किसी राजदल के नेता के आगे नतमस्तक हैं और वह नेता पूंजी पतियों की बात मानने को मजबूर है. हमारे जैसे लोग हवा का रुख देखकर अपना रुख बदलते रहत हैं. इसका कुफल हमारे नौनिहाल भुगत रहे हैं.

इसलिये हमें केजी से पीजी तक के लिये निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था को  को हर गांव, कस्बा, नगर तथा महानगर तक प्रसारित करना होगा. इसके लिये अखिल भारतीय शिक्षा संघर्ष यात्रा-२०१४ से जुड़िये और विमर्श कीजिये तथा वह करने का प्रयास कीजिये जिससे हर सपने को आसमान मिले.

सुझाव दीजिये.
नमस्कार.